गुरुवार, 22 अगस्त 2019

दैनिक राशिफल

दैनिक राशिफल कितना सच...!




आप सभी ने न्यूज़ चैनलों व समाचार पत्रों में नित्य प्रसारित व प्रकाशित होते दैनिक राशिफल को तो अवश्य देखा व सुना होगा। आजकल अधिकांश व्यक्ति प्रात:काल समाचार पत्र में सर्वप्रथम दैनिक राशिफल वाले स्तंभ में अपनी राशि का फलित देखकर अपने दिन का पूर्वानुमान लगाने में उत्सुक रहते हैं और सांझ ढ़लते ही महसूस करते हैं कि उनकी राशि का जो फ़लित दैनिक राशिफल में बताया गया था वह तो असत्य निकला। इसके बाद वे ज्योतिष शास्त्र को कोसने लगते हैं। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। आज हम अपने पाठकों को  दैनिक राशिफल से जुड़ी कुछ महत्त्वपूर्ण व प्रामाणिक जानकारियां देने जा रहे हैं। हम अपने पाठकों को बताना चाहते हैं कि आजकल जिस प्रकार दैनिक राशिफल बताया जाता है वह पूर्णत: भ्रामक व अप्रामाणिक होता है। उसका कोई शास्त्रोक्त व ज्योतिषीय आधार नहीं होता। यही वजह है कि करीब-करीब 99 फ़ीसदी दैनिक राशिफल का फलित असत्य निकलता है। जिन व्यक्तियों का फलित सही होता भी है वह उनकी निजी जन्मपत्रिका की ग्रहस्थितियों, दशाओं व ग्रह-गोचर का परिणाम होता है। आप निश्चित ही यह बात सुनकर चौंक जाएंगे। कुछ विद्वान इससे अपनी भिन्न राय भी रखेंगे किन्तु हम यहां आपके विचार हेतु कुछ तथ्य प्रस्तुत करना चाहते हैं जिनके अध्ययन से आप स्वयं दैनिक राशिफल की प्रामाणिकता का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
1. ग्रह गोचर-
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ज्योतिष शास्त्र में फलित के लिए ग्रहस्थिति मुख्यरूपेण उत्तरदायी होती है, चाहे वह जन्मपत्रिका की ग्रहस्थिति हो या गोचर की। ज्योतिष के गोचर शास्त्र के अनुसार ग्रह गोचर अर्थात् ग्रहों का राशि परिवर्तन प्रतिदिन नहीं होता। समस्त नौ ग्रहों के गोचर का अलग-अलग काल है जिनमें सूर्य,बुध,शुक्र लगभग 1 माह, मंगल 57 दिन, गुरू 1 वर्ष, राहु-केतु 1.5 (डेढ़) वर्ष, शनि ढाई (2.5) वर्ष में अपनी राशि परिवर्तन करते हैं। अब बात करें चन्द्रमा के गोचर की तो चन्द्रमा भी सवा दो दिन में अपनी राशि परिवर्तन करते हैं। इसका आशय यह हुआ कि सवा दो दिनों तक तो ग्रहस्थितियों में परिवर्तन नहीं होगा। यदि किसी ग्रह का गोचर हुआ भी तो अगले दिन से लेकर पुन: तीन दिनों तक वही स्थिति रहेगी, जो ग्रह जिस राशि में स्थित है उसी राशि में रहेगा तो ऐसे समान ग्रहस्थिति के आधार पर फलित प्रतिदिन कैसे परिवर्तित हो सकता है आप स्वयं सोचिए!

2. जन्मपत्रिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण-
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ज्योतिष शास्त्र में किसी जातक के फलित के लिए उसकी जन्मपत्रिका की लग्न कुण्डली को सर्वाधिक महत्ता प्रदान की गई है तत्पश्चात् नवमांश कुण्डली, उसके बाद वर्ग कुण्डली, फ़िर विंशोत्तरी दशाएं, उसके बाद योगिनी दशाएं और सबसे अन्त में गोचर को मान्यता दी गई है। जब गोचर को ही फलित करते समय सबसे अन्तिम पायदान पर रखा जाता है तो केवल चन्द्र के गोचर व नक्षत्र से दैनिक राशिफल निकालना कहां तक उचित व प्रामाणिक है।

3. दैनिक राशिफल भी होता है-
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अब उपर्युक्त आधार पर क्या यह मान लिया जाए कि ज्योतिष शास्त्र में दैनिक राशिफल होता ही नहीं है; नहीं ऐसा कदापि नहीं है। दैनिक राशिफल भी ज्योतिष शास्त्र के अन्तर्गत ही आता है किन्तु वह प्रत्येक जातक का निजी होता है और उसका आधार प्रश्न कुण्डली व नष्टजातकम् पद्धति होता है। उस दैनिक राशिफल के लिए व्यक्ति को ज्योतिषी से प्रश्न करना होता है कि "मेरा आज का दिन कैसा रहेगा?" तब ज्योतिषी प्रश्न कुण्डली के आधार पर अथवा उस व्यक्ति से कोई अंक पूछकर उसके दिन के बारे गणना कर उस दिन का भविष्य संकेत उसे देता है। इस प्रकार का दैनिक राशिफल व्यक्तिगत होता ना कि सार्वजनिक। अत: हमारे मतानुसार समाचार पत्रों व न्यूज़ चैनलों में प्रसारित-प्रकाशित होने वाले दैनिक राशिफल के फलित को गंभीरता से ना लेते हुए अपनी जन्मपत्रिका की ग्रहस्थितियों, दशाओं व अपनी राशि गोचर पर अधिक विश्वास करना चाहिए। यदि किसी दिन के बारे में जानना बहुत आवश्यक हो तो किसी विद्वान दैवज्ञ से प्रश्न कर इस सम्बन्ध में निर्णय करना अधिक श्रेयस्कर व लाभदायक रहता है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र

सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com



रविवार, 11 अगस्त 2019

दान

क्या है दान की शास्त्रसम्मत विधि-
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हमारे सनातन धर्म में दान का विशेष महत्त्व बताया गया है। शास्त्रों में तो स्पष्ट निर्देश है कि व्यक्ति को अपने कमाई का दशांश (दस फ़ीसदी) अवश्य ही दान करना चाहिए तभी उसका अपनी कमाई पर अधिकार सिद्ध होता है। अपनी कमाई का दशांश दान नहीं करने वाले व्यक्ति को चोर की संज्ञा दी गई है। अब प्रश्न यह उठता है कि दान की सही विधि क्या हो? हमारे शास्त्रों ने दान देने की सही विधि के बारे में भी स्पष्ट निर्देश दिया है। अधार्मिक रीति से दिया गया दान निष्फ़ल व नष्ट हो जाता है। आईए जानते हैं कि दान देने हेतु शास्त्रोक्त नियम क्या हैं-
1. प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम रूप से अपनी कमाई का दशांश (दस प्रतिशत) अवश्य ही दान करना चाहिए।
2. दान सदैव सत्पात्र अर्थात् दान लेने हेतु योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए।
3. दान सदैव धार्मिक रीति से उपार्जित धन, सम्पत्ति अथवा द्रव्य का ही दिया जाना चाहिए।
4. किसी की धरोहर या अमानत में रखे धन अथवा सम्पत्ति या द्रव्य का दान नहीं दिया जाना चाहिए।
5. ऋण लेकर कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए।
6. अपने संकटकाल के लिए संरक्षित धन (सुरक्षित निधि) का कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए।
7. दान सदैव प्रसन्नचित्त एवं निस्वार्थ भाव अर्थात् अपेक्षा रहित होकर दिया जाना चाहिए।

इस रीति से दिए गए दान होते हैं नष्ट-
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1. ऐसा दान जिसके दिए जाने के उपरान्त दानदाता के मन में पश्चाताप हो वह नष्ट हो जाता है।
2. ऐसा दान जो अश्रद्धापूर्वक दिया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
3. ऐसा दान जो मन में द्वेष या क्रोध भावना का संचार करे वह नष्ट हो जाता है।
4. ऐसा दान जो भयपूर्वक दिया जाता है वह नष्ट हो जाता है।
5. ऐसा दान जो स्वार्थपूर्वक अर्थात् दान देने वाले से बदले में कुछ अपेक्षा रखकर दिया जाता है वह नष्ट हो जाता है।

सत्पात्र व कुपात्र के बारे में दान का विशेष नियम-
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शास्त्रों ने सदैव ही सत्पात्र को दान दिए जाने का आग्रह किया है। इस सम्बन्ध में शास्त्र का स्पष्ट निर्देश है कि सत्पात्रों को दिए गए दान का पुण्यफल अक्षय होता है व मृत्युपर्यंत (परलोक) भी प्राप्त होता है, वहीं कुपात्र व अयोग्य व्यक्ति को दिए गए दान का फल वर्तमान काल में भोग के उपरान्त ही समाप्त हो जाता है।

ये हैं महादान-
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शास्त्रों में दस वस्तुओं के दान को महादान बताया गया है वे हैं-
1. गाय
2. भूमि
3. तिल
4. स्वर्ण (सोना)
5. रजत (चांदी)
6. घी
7. वस्त्र
8. धान्य
9. गुड़
10. नमक (लवण)

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com


शनिवार, 10 अगस्त 2019

प्रसाद


क्या प्रभु को अर्पित प्रसाद खरीदना चाहिए...!
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हमारे सनातन धर्म में प्रभु-प्रसाद की बड़ी महिमा बताई गई है। शास्त्रानुसार प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा का प्रसाद ग्रहण करने के उपरान्त ही भोजन करना चाहिए इसीलिए सन्तजन; वैष्णव जन भोज्य पदार्थ ग्रहण करने से पूर्व भगवान को अर्पित कर भोग लगाते हैं तदुपरान्त उसे प्रसाद रूप में ही ग्रहण करते हैं। स्कंद पुराण आदि शास्त्रों में हमें प्रसाद की महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है। शास्त्रानुसार प्रभु का प्रसाद परम पवित्र होता है। इसे ग्रहण कर खाने वाले वाला भी पवित्र हो जाता है। भगवान के प्रसाद को ग्रहण करने अथवा वितरण करने में जाति का कोई बन्धन नहीं होता अर्थात् प्रसाद को सभी व्यक्ति समान रूप से ग्रहण कर सकते हैं। प्रभु प्रसाद कभी भी अशुद्ध या बासी नहीं होता और ना ही यह किसी के द्वारा छूने से अपवित्र होता है। भगवान का प्रसाद हर स्थिति-परिस्थिति में गंगाजल के समान शुद्ध माना गया है।



क्या प्रसाद खरीदना-बेचना सही है...?
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वर्तमान समय में शनै: शनै: हमारे आराध्य स्थल भी व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र बनते जा रहे हैं। आज अधिकतर कई तीर्थ स्थानों व आराध्य स्थलों पर शास्त्र विरूद्ध क्रियाकलाप होने लगे हैं, चाहे वह शीघ्र दर्शन के लिए उत्कोच (अधार्मिक रीति से दिया गया धन) का लिया-दिया जाना हो, चाहे प्रभु को अर्पित प्रसाद का क्रय-विक्रय हो। आजकल अधिकांश धार्मिक स्थानों पर यत्र-तत्र सूचना पट दिखाई देते हैं जिनमें भगवान को अर्पित भोग (प्रसाद) का विक्रय किया जाता है। श्रद्धालुगण भी भगवान के प्रसाद को खरीद कर स्वयं को धन्यभागी समझते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसा करना शास्त्र विरूद्ध कर्म है। शास्त्र में भगवान के प्रसाद का क्रय-विक्रय करना निषिद्ध बताया गया है। स्कंद पुराण के अनुसार जो व्यक्ति भगवान को अर्पित भोग को; जो भोग के पश्चात् प्रसाद रूप में परिवर्तित हो चुका है उसे खरीदते या बेचते हैं वे दोनों ही नरकगामी होते हैं। यहां विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि भगवान को अर्पण किया जाने वाला भोग तो खरीदा जा सकता है लेकिन भोग के उपरान्त प्रसाद रूप में मिले भोग को क्रय या विक्रय नहीं करना चाहिए। हमारा तो मत है कि जहां तक हो सके पूर्ण शुचिता के साथ स्वयं के द्वारा बनाया गया भोग ही भगवान को अर्पण करना चाहिए। प्रभु प्रसाद का क्रय-विक्रय करना सर्वथा शास्त्र विरूद्ध है अत: श्रद्धालुओं को इस कर्म से बचना चाहिए।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com

मृत्यु


शास्त्रानुसार क्या है मृत्यु का अर्थ-
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शास्त्र के सूत्रों और वचनों को यदि भलीभांति व सही परिप्रेक्ष्य में ना समझा जाए तो वे लाभप्रद होने के स्थान पर हानिकारक भी सिद्ध हो सकते हैं। अक्सर उचित एवं सटीक व्याख्या ना होने पर अर्थ का अनर्थ कर शास्त्रों के सूत्रों व निर्देशों के प्रति भ्रांतियां निर्मित कर दी जाती हैं। आज हम "वेबदुनिया" के पाठकों ज्योतिष की मारकेश दशा से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं। अधिकांश जनमानस ज्योतिष की दो दशाओं के आने पर अत्यधिक भयाक्रान्त होता है-शनि की साढ़ेसाती एवं मारकेश की दशा। मारकेश की दशा के सम्बन्ध में अक्सर यह भ्रान्ति प्रचलित है कि इस दशा में जातक की मृत्यु घटित होती है जबकि यह तथ्य पूर्णत: सत्य नहीं अपितु आंशिक सत्य है। क्योंकि ज्योतिष शास्त्रानुसार मृत्यु का अर्थ केवल प्राणहानि ही नहीं होता। शास्त्र का वचन है-
"व्यथा दु:खं भयं लज्जा रोग: शोकस्तथैव च।
बन्धनं चापमानं च मृत्युचाष्टविध: स्मृत:॥
उपर्युक्त सूत्रानुसार शास्त्र आठ बातों को मृत्यु के सदृश मानता है, ये हैं- व्यथा, दु:ख, भय, लज्जा, रोग, शोक, बन्धन, अपमान अर्थात् यदि किसी जातक पर "मारकेश" की दशा प्रभावशाली हो और उसकी आयु हो तो "मारकेश" की दशा में प्राणहानि ना होकर उसे इस दशा में केवल अत्यधिक कष्ट का सामना करना पड़ेगा।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
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गुरुवार, 1 अगस्त 2019

योगिनी दशा

योगिनी दशा भी है महत्त्वपूर्ण
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ज्योतिष शास्त्र को वेदों का नेत्र कहा गया है। जिस प्रकार व्यक्ति भले ही सम्पूर्ण स्वस्थ हो किन्तु नेत्र के अभाव में वह अस्वस्थ व अपूर्ण ही कहा जाएगा। इसी प्रकार ज्योतिषीय मार्गदर्शन के अभाव में सांसारिक मनुष्यों का जीवन व्यतीत करना ठीक ऐसे ही है जैसे कोई दुर्गम मार्ग पर आंखे बन्द किए चल रहा हो। ज्योतिष शास्त्र में जातक के जीवन का भविष्यसंकेत करने के लिए अनेक पद्धतियां है उन पद्धतियों में घटनाओं के समय को सुनिश्चित करने के लिए दशा पद्धति को अपनाया जाता है। ज्योतिष शास्त्र में विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी, चर व योगिनी दशाओं के माध्यम से जातक के वर्तमान व भविष्य के बारे में दिशा-निर्देश दिए जाते हैं। इन दशाओं में "विंशोत्तरी दशा" को सर्वत्र ग्राह्य व मान्य किया जाता है किन्तु "विंशोत्तरी दशा" के अतिरिक्त एक और दशा है जो जातक के जीवन पर अपना महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है, वह दशा है- योगिनी दशा। "योगिनी दशा" की गणना किए बिना कोई भी ज्योतिषी जातक के भविष्य के बारे सटीक भविष्य संकेत कर ही नहीं सकता। "योगिनी दशा" के बारे में मान्यता है कि ये दशाएं स्वयं भगवान शिव के द्वारा बनाई हुई हैं एवं जातक के जीवन को प्रभावित करती हैं। ज्योतिष शास्त्र में "योगिनी दशाओं" का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
योगिनी दशाओं के प्रकार
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योगिनी दशाएं आठ प्रकार की होती हैं एवं इनके भी अधिपति ग्रह होते हैं, ये हैं-
1. मंगला- चन्द्र
2. पिंगला- सूर्य
3. धान्या-गुरू
4. भ्रामरी-मंगल
5. भद्रिका-बुध
6. उल्का-शनि
7. सिद्धा- शुक्र
8. संकटा- राहु

योगिनी दशाओं के भोग्यकाल वर्ष
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विंशोत्तरी दशाओं के समान ही योगिनी दशाओं के भी निश्चित भोग्य कालखण्ड होते हैं। आईए जानते हैं कि किस योगिनी की दशा कितने वर्षों की होती है-
1. मंगला - एक वर्ष
2. पिंगला - दो वर्ष
3. धान्या- तीन वर्ष
4. भ्रामरी- चार वर्ष
5. भद्रिका- पांच वर्ष
6. उल्का- छह वर्ष
7. सिद्धा- सात वर्ष
8. संकटा- आठ वर्ष

कौन सी होती है शुभ योगिनी
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विंशोत्तरी दशा में जहां शुभाशुभ समय का निर्णय केवल महादशानाथ व अन्तर्दशानाथ की जन्मकुण्डली में स्थिति के आधार पर किया जाता है वहीं योगिनी दशा में इसके अतिरिक्त प्रत्येक योगिनी का एक निश्चित फल भी होता है जिसके आधार पर जातक को परिणाम प्राप्त होते हैं।
शुभ योगिनी- मंगला, धान्या, भद्रिका, सिद्धा
अशुभ योगिनी- पिंगला, भ्रामरी, उल्का, संकटा

योगिनी दशाफल
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1. मंगला- (चन्द्र)
- शत्रु से विवाद, वाहन से भय, वाहन का विनाश, रत्न लाभ, स्त्री-पुत्र और पारिवारिक सुख की प्राप्ति होती है।
2. पिंगला-(सूर्य)
- दु:ख, शोक व्याग्रता और स्वजनों से कलह होता है।
3. धान्या-(गुरू)
- धनधान्य का लाभ, युद्ध में विजय, स्त्री सुख, वस्त्राभूषण की प्राप्ति होती है।
4 .भ्रामरी-(मंगल)
- विदेश यात्रा से कष्ट, स्त्री से पीड़ा, कर्ज, संकट व राजदण्ड होता है।
5. भद्रिका-(बुध)
- धनलाभ, वस्त्राभूषण की प्राप्ति, मान-सम्मान, स्त्री सुख की प्राप्ति, कल्याणकारी होती है।
6. उल्का-(शनि)
- आत्मीयजनों से विवाद, रोग, धनहानि, स्त्री वियोग, मित्रों व सम्बन्धियों से बैर, अनर्थकारी होती है।
7. सिद्धा-(शुक्र)
- राजसुख, आत्मीयजनों से लाभ, धनलाभ, स्त्रीसुख, सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
8. संकटा-(राहु)
- स्वजनों से विवाद, रोग, जीवनसाथी को कष्ट, घर में कलह, संकटकारी होती है।

इनमें "संकटा" की दशा सर्वाधिक अशुभ होती है। यदि "संकटा" के साथ-साथ विंशोत्तरी दशाओं में भी किसी अशुभ ग्रह की महादशा-अन्तर्दशा हो तो जातक को भीषण कष्ट भोगना पड़ता है। यदि मारकेश की महादशा/अन्तर्दशा के साथ "संकटा" की दशा भी चल रही हो तो जातक का जीवन तक संकट में पड़ जाता है। जन्मपत्रिका विश्लेषण कराते समय "योगिनी दशाओं" के सम्बन्ध जानकारी लेकर अशुभ योगिनी की वैदिक शान्ति कराकर दुष्प्रभावों को कम किया जा सकता है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

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बुधवार, 24 अप्रैल 2019

गोधूलि लग्न में कब करें विवाह...!



विवाह का दिन एवं विवाह लग्न निश्चित करना एक बेहद चुनौतीपूर्ण व श्रमसाध्य कार्य है जिसे किसी विद्वान दैव से ही करवाना चाहिए।  अक्सर लोग अपनी भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ती के चलते विवाह का दिन व लग्न सुनिश्चित करने में गंभीर लापरवाही एवं शुभ-मुहूर्त्त की उपेक्षा करते हैं। जिसका दुष्परिणाम यदा-कदा दम्पत्ति को अपने वैवाहिक जीवन में भोगना पड़ता है। शास्त्रानुसार विवाह लग्न की शुद्धि "मेलापक" (कुण्डली मिलान) के कई दोषों को समाप्त करने का सामर्थ्य रखती है। अत: विवाह का दिन एवं विवाह लग्न का चयन बड़ी ही सावधानी से किया जाना चाहिए।

क्या है "गोधूलि लग्न" ?

जब भी विवाह-लग्न चयन की बात होती है तो "गोधूलि लग्न" की भी चर्चा होती है। गोधूलि बेला के सही समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान गोधूलि बेला को सूर्यास्त से 12 मिनिट पूर्व एवं सूर्यास्त से 12 मिनिट पश्चात कुल एक घड़ी का मानते हैं वहीं कुछ विद्वानों के मतानुसार गोधूलि बेला सूर्यास्त से 24 मिनिट पूर्व व सूर्यास्त से 24 मिनिट पश्चात कुल 2 घड़ी का माना जाता है। बहरहाल, आज हमारा विषय गोधूलि बेला के समय के स्थान पर गोधूलि लग्न की ग्राह्यता पर आधारित है।

विवाह में "गोधूलि लग्न" का चयन कब करें?

आज हम "वेबदुनिया" के पाठकों को इस विशेष जानकारी से अवगत करा रहे हैं कि विवाह गोधूलि-लग्न केवल तभी ग्रहण की जाती है जब विवाह हेतु शुद्ध दिवस का चयन होने के उपरान्त भी शुद्ध विवाह-लग्न उपस्थित ना हो। यदि विवाह वाले दिन शुद्ध लग्न उपस्थित है तो मात्र अपनी सुविधा के लिए "गोधूलि-लग्न" का चयन किया जाना शास्त्रसम्मत नहीं है। शास्त्र में यह स्पष्ट उल्लेख है कि जहां तक सम्भव हो विवाह वाले दिन शुद्ध लग्न के चयन को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। शुद्ध विवाह लग्न की अनुपस्थिति में ही केवल "गोधूलि-लग्न" का चयन किया जाना चाहिए अन्यत्र नहीं।

विवाह लग्न के चयन में इन बातों का रखें ध्यान-
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विवाह लग्न का चयन करते समय निम्न बातों का विशेष ध्यान रखा जाना आवश्यक है-
1. वर एवं वधू के जन्मलग्न व जन्म राशि की अष्टम राशि विवाह लग्न नहीं होना चाहिए।
2. वर एवं वधू के जन्मलग्न से अष्टमेश विवाह लग्न में उपस्थित नहीं होना चाहिए।
3. वर एवं वधू का जन्मलग्न विवाह लग्न नहीं होना चाहिए।
4. विवाह लग्न में "लग्न-भंग" योग नहीं होना चाहिए।
5. विवाह लग्न में "कर्तरी-दोष" से पीड़ित नहीं होना चाहिए।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
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