गुरुवार, 28 मार्च 2013

ज्योतिष क्या है

ज्योतिष वेद का अंग है। ज्योतिष-शास्त्र को वेदों का नेत्र कहा गया है। जिस प्रकार मनुष्य समस्त इंद्रियां व अंग होते हुए भी नेत्रों के बिना अधूरा है ठीक उसी प्रकार वैदिक शास्त्र ज्योतिष रूपी नेत्र के बिना अधूरा है। ज्योतिष शास्त्र के द्वारा ग्रहस्थिति का अध्ययन करके भविष्य में होने वाली घटनाओं के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। शास्त्र का वचन है "यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे" अर्थात जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। यह संसार माला की लड़ियों की भांति एक-दूसरे में परस्पर गुंथा हुआ है। स्रष्टि का प्रत्येक कण उस चेतन से जुड़ा हुआ है। संसार में जो भी घटित होता है वह सब एक-दूसरे से किसी ना किसी रूप में संबंधित होता है। इसी प्रकार जन्म के समय जो आकाशीय ग्रह स्थिति होती है उसका पूर्ण प्रभाव भी जन्म लेने वाले अर्थात जातक पर पड़ता है। उस आकाशीय ग्रह स्थिति संबंधित गुण-दोष उस जातक पर अपना प्रभाव बनाए रखते हैं इतना ही नहीं समय-समय बदलती हुई आकाशीय ग्रह स्थिति से भी मनुष्य प्रभावित होता है। जिस प्रकार ग्रीष्म काल में सूर्य के प्रभाव से उसे पसीना आ जाता है वहीं सर्दियों में वही किरणें उसे आनंद प्रदान करती हैं। ज्योतिष शास्त्र में महर्षियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत हैं जिन्हें लेखनीबद्ध किया गया है जैसे वशिष्ठ,व्यास,वरूचि,
वराहमिहिर,कालिदास,पाराशर,भ्रगु,भास्कराचार्य,आर्यभट्ट आदि। वर्तमान काल में  ज्योतिष का प्रयोग एक दर्पन की भांति करना चाहिये। ना तो इसके अंधविश्वासी बनें और ना ही इसे उपेक्षित करें क्योंकि ज्योतिष एक विशुद्ध विज्ञान है। जो मनुष्य के भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में संकेत करने में पूर्ण-रूपेण सक्षम है।

 हेमन्त रिछारिया "ज्योतिर्विद"

एकेडमी आफ वैदिक एस्ट्रोलोजी,नई दिल्ली से "ज्योतिर्विद" की उपाधि प्राप्त।

क्या है साढ़ेसाती

साढ़ेसाती-

जब शनि गोचर में जन्मकालीन राशि से द्वादश,चन्द्र लग्न व द्वितीय भाव में स्थित होता है तब इसे शनि की "साढ़ेसाती" या "दीर्घ कल्याणी" कहा जाता है। शनि एक राशि में ढ़ाई वर्ष तक रहता है। इस प्रकार "साढ़ेसाती" की संपूर्ण अवधि साढ़े सात वर्ष की मानी जाती है। सामान्यतः साढ़ेसाती अशुभ व कष्टप्रद मानी जाती है, परन्तु यह एक भ्रांत धारणा है। कुण्डली में स्थित शनि की स्थिति को देखकर ही शनि की साढ़ेसाती का फल कहना चाहिए।

ढैय्या-

इसी प्रकार शनि जब गोचर में जन्मकालीन राशि से चतुर्थ व अष्टम भाव में स्थित होता है तब इसे शनि का "ढैय्या" या "लघु कल्याणी" कहा जाता है। इसकी अवधि ढाई वर्ष की होती है। इसका फल भी साढ़ेसाती के अनुसार ही होता है।

शनि पाया विचार-

जन्मकालीन राशि से जब शनि १,६,११ वीं राशि में हो तो सोने का पाया, २,५,९ वीं राशि में हो तो चांदी का पाया, ३,७,१० वीं राशि में हो तो तांबे का पाया तथा ४,८,१२ वीं राशि में हो तो लोहे का पाया माना जाता है।
इसमें सोने का पाया सर्वोत्तम, चांदी का मध्यम, तांबे व लोहे के पाये निम्न व नेष्ट माने जाते हैं।

शनि शांति के उपाय-
१.    शनि की प्रतिमा पर सरसों के तेल से अभिषेक करना।
२.    दशरथ द्वारा रचित शनि स्त्रोत का पाठ।
३.    हनुमान चालीसा का पाठ व दर्शन।
४.    शनि की पत्नियों के नामों का उच्चारण।
५.    चींटियों के आटा डालना
६.    डाकोत को तेल दान करना
७.    काले कपड़े में उड़द,लोहा,तेल,काजल रखकर दान देना।
८.    काले घोड़े की नाल की अंगूठी मध्यमा अंगुली में धारण करना।
९.    नौकर-चाकर से अच्छा व्यवहार करना।
१०.    छाया दान करना।

गोचर शास्त्र

 गोचर


गोचर शब्द "गम" धातु से बना है, जिसका अर्थ है "चलने वाला"। "चर" शब्द का अर्थ है "गतिमय होना"। इस प्रकार "गोचर" का अर्थ हुआ-"निरन्तर चलने वाला"।
 ब्रह्माण में स्थित ग्रह अपनी-अपनी धुरी पर अपनी गति से निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। इस भ्रमण के दौरान वे एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं। ग्रहों के इस प्रकार राशि परिवर्तन करने के उपरांत दूसरी राशि में उनकी स्थिति को ही "गोचर" कहा जाता है। प्रत्येक ग्रह का जातक की जन्मराशि से विभिन्न भावों "गोचर" भावानुसार शुभ-अशुभ फल देता है।

भ्रमण काल-


सूर्य,शुक्र,बुध का भ्रमण काल १ माह, चंद्र का सवा दो दिन, मंगल का ५७ दिन, गुरू का १ वर्ष,राहु-केतु का डेढ़ वर्ष व शनि का भ्रमण का ढ़ाई वर्ष होता है अर्थात ये ग्रह इतने समय में एक राशि में रहते हैं तत्पश्चात ये अपनी राशि-परिवर्तन करते हैं।

विभिन्न ग्रहों का "गोचर" अनुसार फल-


१. सूर्य-
सूर्य जन्मकालीन राशि से ३,६,१० और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में सूर्य का फल अशुभ देता है।
२. चंद्र-
चंद्र जन्मकालीन राशि से १,३,६,७,१०,व ११ भाव में शुभ तथा ४, ८, १२ वें भाव में अशुभ फल देता है।
३. मंगल-
मंगल जन्मकालीन राशि से ३,६,११ भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
४. बुध-
बुध जन्मकालीन राशि से २,४,६,८,१० और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
५. गुरू-
गुरू जन्मकालीन राशि से २,५,७,९ और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
६. शुक्र-
शुक्र जन्मकालीन राशि से १,२,३,४,५,८,९,११ और १२ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
७. शनि-
शनि जन्मकालीन राशि से ३,६,११ भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
८.  राहु-
राहु जन्मकालीन राशि से ३,६,११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
९.  केतु-
केतु जन्मकालीन राशि से १,२,३,४,५,७,९ और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

पंच महापुरूष योग

पंच महापुरूष योगों का ज्योतिष में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। ये योग हैं रूचक,भद्र,हंस,मालव्य,शश। जो क्रमशः मंगल,बुध,गुरू,शुक्र व शनि ग्रहों के कारण बनते हैं।

१.रूचक-

यदि मंगल अपनी स्वराशि या उच्च राशि में होकर केंद्र में स्थित हो तो "रूचक" नामक योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति साहसी होता है। वह अपने गुणों के कारण धन, पद व प्रतिष्ठा प्राप्त करता है एवं जग प्रसिध्द होता है।

२.भद्र-

यदि बुध अपनी स्वराशि या उच्च राशि में होकर केंद्र में स्थित हो तो "भद्र" नामक योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति कुशाग्र बुध्दि वाला होता है। वह श्रेष्ठ वक्ता, वैभवशाली व उच्चपदाधिकारी होता है।

३. हंस-

यदि गुरू अपनी स्वराशि या उच्च राशि में होकर केंद्र में स्थित हो तो "हंस" नामक योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति बुध्दिमान व आध्यात्मिक होता है एवं विद्वानों द्वारा प्रशंसनीय होता है।

४.मालव्य-

यदि शुक्र अपनी स्वराशि या उच्च राशि में होकर केंद्र स्थित हो तो "मालव्य" नामक योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति विद्वान, स्त्री सुख से युक्त,यशस्वी,शान्त चित्त,वैभवशाली,वाहन व संतान से युक्त होता है।

५.शश-

यदि शनि अपनी स्वराशि या उच्च राशि में होकर केंद्र में स्थित हो तो "शश" नामक योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति उच्चपदाधिकारी,राजनेता,न्यायाधिपति होता है। वह बलवान होता है। वह धनी,सुखी व दीर्घायु होता है।

गजकेसरी योग

"गजकेसरीसंजातस्तेजस्वी धनधान्यवान।
 मेधावी गुणसंपन्नौ राज्यप्राप्तिकरो भवेत॥"

यदि चन्द्र से केन्द्र में गुरू स्थित हो तो "गजकेसरी योग" होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य तेजस्वी,धन-धान्य से युक्त, मेधावी,गुण-संपन्न व राज्याधिकारी होता है।

राजयोग

राजयोग वे योग होते हैं जो मनुष्य को प्रसिद्धि,धन,उच्च पद,प्रतिष्ठा देते हैं। कुछ महत्वपूर्ण राजयोग इस प्रकार बनते हैं-
१-    जब तीन या तीन से अधिक ग्रह अपनी उच्च राशि या स्वराशि में होते हुए केन्द्र में स्थित हों।
२-    जब कोई ग्रह नीच राशि में स्थित होकर वक्री और शुभ स्थान में स्थित हो।
३-    तीन या चार ग्रहों को दिग्बल प्राप्त हो।
४-    चन्द्र केन्द्र स्थित हो और गुरू की उस पर द्रष्टि हो।
५-    नवमेश व दशमेश का राशि परिवर्तन हो।
६-    नवमेश नवम में व दशमेश दशम में हो।
७-    नवमेश व दशमेश नवम में या दशम में हो।

नीचभंग राजयोग

जन्म कुण्डली में जो ग्रह नीच राशि में स्थित है उस नीच राशि का स्वामी अथवा उस राशि का स्वामी जिसमें वह नीच ग्रह उच्च का होता है, यदि लग्न से अथवा चन्द्र से केन्द्र में स्थित हो तो "नीचभंग राजयोग" का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य राजाधिपति व धनवान होता है।

विपरीत राजयोग

"रन्ध्रेशो व्ययषष्ठगो,रिपुपतौ रन्ध्रव्यये वा स्थिते।
 रिःफेशोपि तथैव रन्ध्ररिपुभे यस्यास्ति तस्मिन वदेत,
 अन्योन्यर्क्षगता निरीक्षणयुताश्चन्यैरयुक्तेक्षिता,
 जातो सो न्रपतिः प्रशस्त विभवो राजाधिराजेश्वरः॥

जब छठे,आठवें,बारहवें घरों के स्वामी छठे,आठवे,बारहवें भाव में हो अथवा इन भावों में अपनी राशि में स्थित हों और ये ग्रह केवल परस्पर ही युत व द्रष्ट हों, किसी शुभ ग्रह व शुभ भावों के स्वामी से युत अथवा द्रष्ट ना हों तो "विपरीत राजयोग" का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य धनी,यशस्वी व उच्च पदाधिकारी होता है।

अखण्ड साम्राज्य योग

लाभेश,नवमेश था धनेश इनमें से कोई एक भी ग्रह यदि चन्द्र लग्न से अथवा लग्न से केन्द्र स्थान में स्थित हो और साथ ही यदि गुरू द्वितीय,पंचम या एकादश भाव का स्वामी होकर उसी प्रकार केन्द्र में स्थित हो तो "अखण्ड साम्राज्य योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाले मनुष्य को स्थायी साम्राज्य व विपुल धन की प्राप्ति होती है।

शुभ कर्तरी योग

"शुभ कर्तरि संजातस्तेजोवित्तबलाधिकः।
 पापकर्तरिके पापी भिक्षाशी मलिनो भवेत॥"

जब लग्न से द्वितीय व द्वादश शुभ ग्रह स्थित होते हैं तो "शुभ कर्तरि योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य तेजस्वी,धनी तथा बल से परिपूर्ण होता है।

अमला योग

"यस्य जन्मसमये शशिलग्नात,सद्ग्रहो यदि च कर्मणि संस्थः।
तस्य कीर्तिरमला भुवि तिष्ठेदायुषोऽन्तम्विनाशनसंपत"॥"

जब लग्न अथवा चन्द्र से दशम स्थान में कोई शुभ ग्रह स्थित हो तो "अमला योग" होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य निर्मल कीर्ति वाला व धनवान होता है।

लक्ष्मी योग

" केन्द्रे मूलत्रिकोणस्थ भाग्येशे परमोच्चगे।
 लग्नाधिपे बलाढ्ये च लक्ष्मी योग ईरितिः॥

जब नवम का स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में अपनी स्वराशि या उच्च राशि में स्थित हो और लग्नेश बलवान हो तो "लक्ष्मी योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य विद्वान,धनवान व सब प्रकार के सुखों को भोगने वाला होता है।

कलानिधि योग

"द्वितीये पंचमे जीवे बुधशुक्रयुतेक्षिते।
 क्षेत्रेतयोर्वा संप्राप्ते, योगः स्यात स कलानिधिः॥"

यदि गुरू द्वितीय भाव में बुध; शुक्र से युक्त या द्रष्ट या उसकी राशि में हो तो "कलानिधि योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य राज्य ऐश्वर्य से युक्त व कलाओं में निपुण होता है।

महाभाग्य योग

यदि किसी पुरूष का दिन में जन्म हो और तीनों लग्न विषम राशियों में हो तथा किसी स्त्री का जन्म रात्रि में हो और तीनों लग्न सम राशियों में हो तो "महाभाग्य योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक महाभाग्यशाली व धनवान होता है।

धनयोग

१. कोटिपति योग-

शुक्र एवं गुरू केन्द्रगत हों, लग्न चर राशि में हो व शनि केन्द्रस्थ हो तो "कोटिपति योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक कोटिपति अर्थात करोड़पति होता है।

२. महालक्ष्मी योग-

पंचमेश-नवमेश केन्द्रगत हों और उन पर गुरू,चन्द्र व बुध की द्रष्टि हो तो "महालक्ष्मी योग" बनता है।    इस योग में जन्म लेने वाला जातक अतुलनीय धन प्राप्त करता है।

३.शुक्र योग-

यदि लग्न से द्वादश स्थान में शुक्र स्थित हो तो यह योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक धनी व वैभव-विलासिता से युक्त होता है।

४. चन्द्र-मंगल युति-

नवम भाव या लाभ में यदि चन्द्र-मंगल की युति हो या ये ग्रह अपनी उच्च राशि में अथवा स्वराशि में स्थित हों तो यह योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक महाधनी होता है।

५. गुरू-मंगल युति-

यदि गुरू धन भाव का अधिपति होकर मंगल से युति करे तो जातक प्रख्यात धनवान होता है।

६. अन्य

 यदि नवमेश,धनेश व लग्नेश केन्द्रस्थ हों और नवमेश व धनेश, लग्नेश से द्रष्ट हों तो जातक महाधनी होता   है। यदि लाभेश शुभ ग्रह होकर दशम में हो तथा दशमेश नवम में हो तो जातक को प्रचुर धन प्राप्त होता है।

अधियोग

"लग्नादरिद्यूनग्रहाष्टमस्थैः शुभैः न पापग्रहयोगद्रष्टै।
लग्नाधियोगो भवति प्रसिद्धः पापः सुखस्थानविवर्जितैश्च॥"

यदि लग्न से छठें,सातवें तथा आठवें स्थान में शुभ ग्रह स्थित हों और ये शुभ ग्रह ना तो किसी पाप ग्रह से युक्त हों, ना ही पाप ग्रह से द्रष्ट हों और चतुर्थ स्थान में भी पाप ग्रह ना हों तो प्रसिद्ध "लग्नाधियोग" बनता है। जब यही योग चंद्र लग्न से बनता है तो इसे "चंद्राधियोग" एवं सूर्य लग्न से बनने पर "सूर्य लग्नाधियोग" कहते हैं। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य जीवन में सफल व अत्यंत धनवान होता है।

काहल योग

"अन्योन्यकेन्द्रग्रहगौ गुरूबन्धुनाथौ।
 लग्नाधिपे बलयुते यदि काहलः स्यात॥"

यदि चतुर्थेश तथा भाग्येश एक-दूसरे से केन्द्र में स्थित हो और लग्नाधिपति बलवान हो तो "काहल-योग" होता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य ओजस्वी,मान्य व राजा के समान होता है।

कालसर्प योग

क्या है "कालसर्प योग"


जब जन्मकुण्डली में सभी ग्रह राहु-केतु के मध्य स्थित होते हैं तो इस ग्रहस्थिति को
"कालसर्प योग" कहा जाता है। "कालसर्प योग" अत्यंत अशुभ व पीड़ादायक योग है।

१. "अग्रे वा चेत प्रष्ठतो,प्रत्येक पार्श्वे भाताष्टके राहुकेत्वोन खेटः।
  योग प्रोक्ता सर्पश्च तस्मिन जीतो जीतः व्यर्थ पुत्रर्ति पीयात।
  राहु केतु मध्ये सप्तो विघ्ना हा कालसर्प सारिकः
  सुतयासादि सकलादोषा रोगेन प्रवासे चरणं ध्रुवम॥"

२. "कालसर्पयोगस्थ विषविषाक्त जीवणे भयावह पुनः पुनरपि
   शोकं च योषने रोगान्ताधिकं पूर्वजन्मक्रतं पापं ब्रह्मशापात सुतक्षयः किंचित ध्रुवम॥
   प्रेतादिवशं सुखं सौख्यं विनष्यति।
   भैरवाष्टक प्रयोगेन कालसर्पादिभयं विनश्यति॥"

उपरोक्त श्लोंकों के अनुसार राहु-केतु के मध्य जब सभी ग्रह स्थित होते हैं एक भी स्थान खाली नहीं रहता तभी "पूर्ण कालसर्प योग" का निर्माण होता है। वराहमिहिर ने अपनी संहिता "जातक नभ संयोग" में सर्पयोग का उल्लेख किया है। कल्याण ने भी "सारावली" में इसका विशद वर्णन किया है। कई नाड़ी ग्रंथों में भी "कालसर्प योग" का वर्णन मिलता है। "कार्मिक ज्योतिष" में राहु को "काल" व केतु को "सर्प" कहा गया है। वहीं कुछ शास्त्रों में राहु को सर्प का मुख व केतु को पुंछ कहा गया है। जिन जातकों के जन्मांग-चक्र में "कालसर्प योग" होता है उन्हें अपने जीवन में कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। उनके कार्यों में रूकावटें आतीं हैं। उन्हें अपने मनोवांछित फलों की प्राप्ति नहीं होती। ऐसे जातक मानसिक,शारीरिक व आर्थिक रूप से परेशान रहते हैं। "कालसर्प योग" वाले जातकों के सभी ग्रहों का फल राहु-केतु नष्ट कर देते हैं। इसके फलस्वरूप दुर्भाग्य का जन्म होता है। कुछ विद्वानों का मत है कि जन्मकुण्डली में ग्रह स्थिति कुछ भी हो परन्तु यदि योनि "सर्प" हो तो "कालसर्प योग" होता है।

"कालसर्प योग" के प्रकार-


"कालसर्प योग" कुल मिलाकर २८८ प्रकार का होता है परन्तु मुख्य रूप से इसकी
दो श्रेणियां एवं बारह प्रकार होते हैं।

१. प्रथम श्रेणी है-  उदित कालसर्प योग
२. द्वितीय श्रेणी है- अनुदित कालसर्प योग

१. उदित श्रेणी कालसर्प योग-

"उदित कालसर्प योग" तब बनता है जब सारे ग्रह राहु के मुख की ओर स्थित होते हैं। "उदित श्रेणी" का कालसर्प योग ज़्यादा हानिकारक व दुष्परिणामकारी होता है।

२. अनुदित श्रेणी कालसर्प योग-

"अनुदित कालसर्प योग" तब बनता है जब राहु की पूंछ की ओर स्थित होते हैं। "अनुदित श्रेणी" का कालसर्प योग" उदित श्रेणी की अपेक्षा कम हानिकारक होता है।


बारह प्रकार के "कालसर्प योग"


१.  अनन्त कालसर्प योग- 
 यह योग तब बनता है जब राहु लग्न में और केतु सप्तम भाव में स्थित हो और  इन  दोनों ग्रहों के मध्य सारे ग्रह स्थित हों।
२. कुलिक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु द्वितीय भाव में और केतु अष्टम भाव में स्थित     हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
३. वासुकी कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु तीसरे भाव में और केतु नवम भाव में स्थित     हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
४. शंखपाल कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु चतुर्थ भाव में और केतु दशम भाव में स्थित     हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
५. पद्म कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु पंचम भाव में और केतु एकादश भाव में स्थित     हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
६. महापद्म कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु छठे भाव में और केतु द्वादश भाव में स्थित     हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
७. तक्षक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु लग्न में और राहु सप्तम भाव में स्थित     हो     और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
८. कार्कोटक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु द्वितीय भाव में और राहु अष्टम भाव में     स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
९. शंखचूढ़ कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु तीसरे भाव में और राहु नवम भाव में     स्थित     हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
१०. घातक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु चतुर्थ भाव में और राहु दशम भाव में स्थित हो     और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
११. विषधर कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु पंचम भाव में और राहु एकादश भाव में     स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
१२. शेषनाग कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु छ्ठे भाव में और राहु द्वादश भाव में स्थित हो     और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।

"कालसर्प योग" का निदान या शांति-

"कालसर्प" की विधिवत शांति हेतु त्र्यंबकेश्वर (नासिक) जाकर "नागबलि" व "नारायण बलि" पूजा संपन्न करें व निम्न उपाय करें।
१.     तांबे का सर्प शिव मंदिर में शिवलिंग पर पहनाएं।
२.    चांदी का ३२ ग्राम का सर्पाकार कड़ा हाथ में पहने।
३.    रसोई में बैठकर भोजन करें।
४.    पक्षियों को दाना डालें।
५.    नाग पंचमी का व्रत रखें।
६.    नित्य शिव आराधना करें।
७.    प्रतिदिन राहु-केतु स्त्रोत का पाठ करें।
८.    खोटे सिक्के व सूखे नारियल जल में प्रवाहित करें।
९.    अष्टधातु की अंगूठी प्रतिष्ठित करवा कर धारण करें।
१०.    सर्प को जंगल में छुड़वाएं।

केमद्रुम योग


जब चन्द्र से द्वितीय व द्वादश स्थान में कोई ग्रह नहीं हो व चन्द्र किसी ग्रह से युत ना हो एवं चन्द्र से दशम कोई ग्रह स्थित ना हो तो दरिद्रतादायक "केमद्रुम योग" बनता है। यह एक अत्यंत अशुभ योग है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य चाहे इन्द्र का प्रिय पुत्र ही क्यों ना हो वह अंत में दरिद्री होकर भिक्षा मांगता है।
"कान्तान्नपान्ग्रहवस्त्रसुह्यदविहीनो,
 दारिद्रयदुघःखगददौन्यमलैरूपेतः।
 प्रेष्यः खलः सकललोकविरूद्धव्रत्ति,
 केमद्रुमे भवति पार्थिववंशजोऽपि॥"
अर्थात- यदि केमद्रुम योग हो तो मनुष्य स्त्री,अन्न,घर,वस्त्र व बन्धुओं से विहीन होकर दुःखी,रोगी,दरिद्री होता है चाहे उसका जन्म किसी राजा के यहां ही क्यों ना हुआ हो।

पापकर्तरी योग

"शुभ कर्तरि संजातस्तेजोवित्तबलाधिकः।
 पापकर्तरिके पापी भिक्षाशी मलिनो भवेत॥"

जब लग्न से द्वितीय व द्वादश पाप ग्रह स्थित होते हैं तो "पापकर्तरि योग" बनता है।
इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करने वाला, निर्धन व गन्दा होता है।

दारिद्र्य योग

"चन्द्रे सभानौ यदि नीचद्रष्टे,
 पासांशके याति दरिद्र योगम।
 क्षीणेन्दु लग्नान्निधने निशायाम,
 पापेक्षिते पापयुते तथा स्यात॥"

१-    यदि सूर्य-चन्द्र की युति हो और वे नीच ग्रह से देखे जाते हों|
२-    यदि सूर्य-चन्द्र की युति हो और वे पाप नवांश में स्थित हों|
३-    यदि रात्रि में जन्म हो और क्षीण चन्द्र लग्न से अष्टम में स्थित हो
       और वो ( चन्द्र) पाप ग्रह से युक्त व द्रष्ट हो|
४-    चन्द्र राहु तथा किसी पाप ग्रह से पीड़ित हो|
५-    केन्द्र में केवल पापी ग्रह स्थित हों।
६-    चन्द्र से केन्द्र में केवल पापी ग्रह स्थित हों|

    उपरोक्त योगों में जन्म लेने वाला मनुष्य निर्धन अर्थात दरिद्र होता है।

मांगलिक योग

यदि लग्न अथवा चन्द्र लग्न से प्रथम,चतुर्थ,सप्तम,अष्टम व द्वादश स्थान में मंगल स्थित हो तो "मांगलिक योग" बनता है। यह योग दाम्पत्य के लिए हानिकारक होता है। इस योग में जन्म लेने वाले मनुष्य को दाम्पत्य व वैवाहिक सुख का अभाव रहता है।

शकट योग

" षष्ठाष्टमं गतश्चन्द्रात सुरराज्पुरोहितः।
 केन्द्रादन्यगतो लग्नाद्योगः शकटसंजितः॥
 अपि राजकुले जातः निः स्वः शकटयोगजः।
 क्लेशायासवशान्नित्यं संतप्तो न्रपविप्रियः॥

यदि चन्द्र और गुरू का षडष्टक हो अर्थात वे एक-दूसरे से छठे अथवा आठवें स्थित हों और गुरू लग्न से केन्द्र में ना हो "शकट योग" बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला मनुष्य यदि राजकुल में भी उत्पन्न हो तो भी निर्धन रहता है। सदा कष्ट तथा परिश्रम से जीवन-यापन करता है और राजा एवं भाग्य सदा उसके प्रतिकूल रहता है। 

चंद्र से बनने वाले योग

१. अनफा योग-

   जब सूर्य,राहु-केतु के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह चन्द्र से द्वादश स्थित होता है तो "अनफा योग" बनता है।

२. सुनफा-

   जब सूर्य,राहु-केतु के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह चन्द्र से द्वितीय स्थित होता है तो "सुनफा योग" बनता है।

३. दुरूधरा योग-

  जब चंद्र से द्वितीय व द्वादश स्थान में सूर्य के अतिरिक्त कोई ग्रह स्थित होता है तो "दुरूधरा योग" बनता  है।

फलश्रुति-

इन योगों में जन्म लेने वाला मनुष्य धनी,प्रतिष्ठित,नौकर-चाकर,वाहन से युक्त,सुखी होता है।यदि ये योग पाप ग्रहों के कारण बनते हैं तो इनका फल विपरीत होता है।

सूर्य से बनने वाले योग

१.वेशि-

 जब चन्द्र के अतिरिक्त कोई ग्रह सूर्य से द्वितीय स्थित होता है तो "वेशि" नामक योग बनता है।

२.वाशि-

 जब चन्द्र के अतिरिक्त कोई ग्रह सूर्य से द्वादश स्थित होता है तो "वाशि" नामक योग बनता है।

३.उभयचारी योग-

 जब सूर्य से द्वितीय व द्वादश ग्रह स्थित होते हैं तो "उभयचारी" नामक योग बनता है।

फलश्रुति-

इन योगों में जन्म लेने वाला मनुष्य धनी,प्रसिद्ध,अच्छा वक्ता व सब प्रकार के सुखों का भोक्ता होता है।
यदि ये योग पाप ग्रहों के कारण बनते हैं तो इनका फल विपरीत होता है।

क्या है "भद्रा"...?

वर्ष मासो दिनं लग्नं मुहूर्तश्चेति पन्चकम।
कालस्यागानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तरम॥
लग्नं दिनभवं हन्ति मुहूर्तः सर्वंदूषणम।
तस्मात शुद्धि मुहूर्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते॥

अर्थात मास श्रेष्ठ होने वर्ष का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का, लग्न श्रेष्ठ होने पर दिन का व मुहूर्त श्रेष्ठ होने पर लग्नादि तक सभी का दोष मुक्त हो जाता है।

अतः शुभ कार्यों में मुहूर्त का विशेष महत्व है। मुहूर्त की गणना के लिए पंचांग का होना अति आवश्यक है। तिथि,वार,नक्षत्र,योग व करण इन पांच अंगों को मिलाकर ही "पंचांग" बनता है। करण पंचांग का पांचवा अंग है। तिथि के आधे भाग को "करण" कहते हैं। तिथि के पहले आधे भाग को प्रथम करन तथा दूसरे आधे भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार १ तिथि में दो करण होते हैं। करण कुल ११ प्रकार के होते हैं इनमें से ७ चर व ४ स्थिर होते हैं।

चर करण- १.बव २.बालव ३.कौलव ४.तैतिल ५.गर ६.वणिज ७. विष्टि (भद्रा)।

स्थिर करण- ८.शकुनि ९.चतुष्पद १०.नाग ११.किंस्तुध्न।

इसमें विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। समस्त करणों में भद्रा का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष ८,१५ तिथि के पूर्वाद्ध में व ४ ,११ तिथि के उत्तरार्द्ध में एवं कृष्ण पक्ष के ३,१० तिथि के उत्तरार्द्ध और ७,१४ तिथि के पूर्वाद्ध में भद्रा रहती है अर्थात विष्टि करण रहता है। पूर्वाद्ध की भद्रा दिन में व उत्तरार्द्ध की भद्रा रात्रि में त्याज्य है। यहां विशेष बात यह है कि भद्रा का मुख भाग ही त्याज्य है जबकि पुच्छ भाग सब कार्यों में शुभफलप्रद है। भद्रा के मुख भाग की ५ घटियां अर्थात २ घंटे त्याज्य है। इसमें किसी भी प्रकार का शुभकार्य करना वर्जित है। पुच्छ भाग की ३ घटियां अर्थात १ घंटा १२ मिनिट शुभ हैं। सोमवार व शुक्रवार की भद्रा को कल्याणी, शनिवार की भद्रा को वृश्चिकी, गुरूवार की भद्रा को पुण्यवती तथा रविवार;बुधवार;मंगलवार की भद्रा को भद्रिका कहते हैं। इसमें शनिवार की भद्रा विशेष अशुभ होती है।