गुरुवार, 28 मार्च 2013

क्या है "भद्रा"...?

वर्ष मासो दिनं लग्नं मुहूर्तश्चेति पन्चकम।
कालस्यागानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तरम॥
लग्नं दिनभवं हन्ति मुहूर्तः सर्वंदूषणम।
तस्मात शुद्धि मुहूर्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते॥

अर्थात मास श्रेष्ठ होने वर्ष का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का, लग्न श्रेष्ठ होने पर दिन का व मुहूर्त श्रेष्ठ होने पर लग्नादि तक सभी का दोष मुक्त हो जाता है।

अतः शुभ कार्यों में मुहूर्त का विशेष महत्व है। मुहूर्त की गणना के लिए पंचांग का होना अति आवश्यक है। तिथि,वार,नक्षत्र,योग व करण इन पांच अंगों को मिलाकर ही "पंचांग" बनता है। करण पंचांग का पांचवा अंग है। तिथि के आधे भाग को "करण" कहते हैं। तिथि के पहले आधे भाग को प्रथम करन तथा दूसरे आधे भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार १ तिथि में दो करण होते हैं। करण कुल ११ प्रकार के होते हैं इनमें से ७ चर व ४ स्थिर होते हैं।

चर करण- १.बव २.बालव ३.कौलव ४.तैतिल ५.गर ६.वणिज ७. विष्टि (भद्रा)।

स्थिर करण- ८.शकुनि ९.चतुष्पद १०.नाग ११.किंस्तुध्न।

इसमें विष्टि करण को ही भद्रा कहते हैं। समस्त करणों में भद्रा का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष ८,१५ तिथि के पूर्वाद्ध में व ४ ,११ तिथि के उत्तरार्द्ध में एवं कृष्ण पक्ष के ३,१० तिथि के उत्तरार्द्ध और ७,१४ तिथि के पूर्वाद्ध में भद्रा रहती है अर्थात विष्टि करण रहता है। पूर्वाद्ध की भद्रा दिन में व उत्तरार्द्ध की भद्रा रात्रि में त्याज्य है। यहां विशेष बात यह है कि भद्रा का मुख भाग ही त्याज्य है जबकि पुच्छ भाग सब कार्यों में शुभफलप्रद है। भद्रा के मुख भाग की ५ घटियां अर्थात २ घंटे त्याज्य है। इसमें किसी भी प्रकार का शुभकार्य करना वर्जित है। पुच्छ भाग की ३ घटियां अर्थात १ घंटा १२ मिनिट शुभ हैं। सोमवार व शुक्रवार की भद्रा को कल्याणी, शनिवार की भद्रा को वृश्चिकी, गुरूवार की भद्रा को पुण्यवती तथा रविवार;बुधवार;मंगलवार की भद्रा को भद्रिका कहते हैं। इसमें शनिवार की भद्रा विशेष अशुभ होती है।

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