क्या है "कालसर्प योग"
जब जन्मकुण्डली में सभी ग्रह राहु-केतु के मध्य स्थित होते हैं तो इस ग्रहस्थिति को
"कालसर्प योग" कहा जाता है। "कालसर्प योग" अत्यंत अशुभ व पीड़ादायक योग है।
१. "अग्रे वा चेत प्रष्ठतो,प्रत्येक पार्श्वे भाताष्टके राहुकेत्वोन खेटः।
योग प्रोक्ता सर्पश्च तस्मिन जीतो जीतः व्यर्थ पुत्रर्ति पीयात।
राहु केतु मध्ये सप्तो विघ्ना हा कालसर्प सारिकः
सुतयासादि सकलादोषा रोगेन प्रवासे चरणं ध्रुवम॥"
२. "कालसर्पयोगस्थ विषविषाक्त जीवणे भयावह पुनः पुनरपि
शोकं च योषने रोगान्ताधिकं पूर्वजन्मक्रतं पापं ब्रह्मशापात सुतक्षयः किंचित ध्रुवम॥
प्रेतादिवशं सुखं सौख्यं विनष्यति।
भैरवाष्टक प्रयोगेन कालसर्पादिभयं विनश्यति॥"
उपरोक्त श्लोंकों के अनुसार राहु-केतु के मध्य जब सभी ग्रह स्थित होते हैं एक भी स्थान खाली नहीं रहता तभी "पूर्ण कालसर्प योग" का निर्माण होता है। वराहमिहिर ने अपनी संहिता "जातक नभ संयोग" में सर्पयोग का उल्लेख किया है। कल्याण ने भी "सारावली" में इसका विशद वर्णन किया है। कई नाड़ी ग्रंथों में भी "कालसर्प योग" का वर्णन मिलता है। "कार्मिक ज्योतिष" में राहु को "काल" व केतु को "सर्प" कहा गया है। वहीं कुछ शास्त्रों में राहु को सर्प का मुख व केतु को पुंछ कहा गया है। जिन जातकों के जन्मांग-चक्र में "कालसर्प योग" होता है उन्हें अपने जीवन में कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। उनके कार्यों में रूकावटें आतीं हैं। उन्हें अपने मनोवांछित फलों की प्राप्ति नहीं होती। ऐसे जातक मानसिक,शारीरिक व आर्थिक रूप से परेशान रहते हैं। "कालसर्प योग" वाले जातकों के सभी ग्रहों का फल राहु-केतु नष्ट कर देते हैं। इसके फलस्वरूप दुर्भाग्य का जन्म होता है। कुछ विद्वानों का मत है कि जन्मकुण्डली में ग्रह स्थिति कुछ भी हो परन्तु यदि योनि "सर्प" हो तो "कालसर्प योग" होता है।
"कालसर्प योग" के प्रकार-
"कालसर्प योग" कुल मिलाकर २८८ प्रकार का होता है परन्तु मुख्य रूप से इसकी
दो श्रेणियां एवं बारह प्रकार होते हैं।
१. प्रथम श्रेणी है- उदित कालसर्प योग
२. द्वितीय श्रेणी है- अनुदित कालसर्प योग
१. उदित श्रेणी कालसर्प योग-
"उदित कालसर्प योग" तब बनता है जब सारे ग्रह राहु के मुख की ओर स्थित होते हैं। "उदित श्रेणी" का कालसर्प योग ज़्यादा हानिकारक व दुष्परिणामकारी होता है।
२. अनुदित श्रेणी कालसर्प योग-
"अनुदित कालसर्प योग" तब बनता है जब राहु की पूंछ की ओर स्थित होते हैं। "अनुदित श्रेणी" का कालसर्प योग" उदित श्रेणी की अपेक्षा कम हानिकारक होता है।
बारह प्रकार के "कालसर्प योग"
१. अनन्त कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु लग्न में और केतु सप्तम भाव में स्थित हो और इन दोनों ग्रहों के मध्य सारे ग्रह स्थित हों।
२. कुलिक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु द्वितीय भाव में और केतु अष्टम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
३. वासुकी कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु तीसरे भाव में और केतु नवम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
४. शंखपाल कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु चतुर्थ भाव में और केतु दशम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
५. पद्म कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु पंचम भाव में और केतु एकादश भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
६. महापद्म कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब राहु छठे भाव में और केतु द्वादश भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
७. तक्षक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु लग्न में और राहु सप्तम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
८. कार्कोटक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु द्वितीय भाव में और राहु अष्टम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
९. शंखचूढ़ कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु तीसरे भाव में और राहु नवम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
१०. घातक कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु चतुर्थ भाव में और राहु दशम भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
११. विषधर कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु पंचम भाव में और राहु एकादश भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
१२. शेषनाग कालसर्प योग-
यह योग तब बनता है जब केतु छ्ठे भाव में और राहु द्वादश भाव में स्थित हो और सारे ग्रह इन दोनों ग्रहों के मध्य स्थित हों।
"कालसर्प योग" का निदान या शांति-
"कालसर्प" की विधिवत शांति हेतु त्र्यंबकेश्वर (नासिक) जाकर "नागबलि" व "नारायण बलि" पूजा संपन्न करें व निम्न उपाय करें।१. तांबे का सर्प शिव मंदिर में शिवलिंग पर पहनाएं।
२. चांदी का ३२ ग्राम का सर्पाकार कड़ा हाथ में पहने।
३. रसोई में बैठकर भोजन करें।
४. पक्षियों को दाना डालें।
५. नाग पंचमी का व्रत रखें।
६. नित्य शिव आराधना करें।
७. प्रतिदिन राहु-केतु स्त्रोत का पाठ करें।
८. खोटे सिक्के व सूखे नारियल जल में प्रवाहित करें।
९. अष्टधातु की अंगूठी प्रतिष्ठित करवा कर धारण करें।
१०. सर्प को जंगल में छुड़वाएं।
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